शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

गे गलत हैं तो ब्रह्मचारी क्या हैं?

होमोसेक्शुऐलिटी को गुनाह नहीं बताने वाले अदालती फैसले से मुझे बहुत खुशी हुई हालांकि मैं खुद होमोसेक्शुअल नहीं हूं।

जब क्लास 8 में पढ़ता था यानी 1973 के आसपास तब यह शब्द अखबारों में पढ़ा था। समझ तो गया था, फिर भी अपने मॉडर्न पिता से पूछ लिया था, यह होमोसेक्शुअल क्या होता है? वह जवाब नहीं दे पाए। टालमटोल वाले अंदाज़ में कहा, एक तरह की मानसिक बीमारी है। मैंने और सवाल पूछकर उनको परेशानी में नहीं डाला लेकिन यह जानकर मायूसी हुई कि मेरे पिता उतने मॉडर्न और खुले विचारों वाले नहीं हैं जितना मैं समझता था।

वह करीब 35 साल पहले की बात थी। लेकिन आज भी लाखों-करोड़ों लोग ऐसे हैं जो इसे एक मानसिक बीमारी समझते हैं। इसलिए समझते हैं कि उन्हें यह समझ में ही नहीं आता कि एक ही सेक्स के दो लोग कैसे एक-दूसरे के प्रति अट्रैक्ट हो सकते हैं। वे खुद ज़िंदगी भर दूसरे सेक्स के प्रति आकर्षण महसूस करते रहे हैं और यह बात उनके गले नहीं उतरती कि कैसे एक लड़की दूसरी लड़की से प्यार कर सकती है या कोई लड़का दूसरे लड़के को पसंद कर सकता है। मेरे लिए यह समझना बिल्कुल ही आसान है क्योंकि मुझे बैगन नहीं पसंद है लेकिन बहुत सारे लोगों को बैगन पसंद है और मुझे नहीं लगता कि वे सारे लोग जो बैगन खाते हैं, मानसिक तौर पर बीमार हैं। यह विशुद्ध मर्जी का मामला है, मर्ज़ का नहीं।

होमोसेक्शुऐलिटी के खिलाफ जो सबसे बड़ा आरोप है, वह यह कि यह अननैचरल है। ऊपरी तौर पर यह आरोप सही लगता है क्योंकि मनुष्य ही नहीं, बाकी जीव-जंतुओं में भी सृष्टि ने नर और मादा अलग-अलग बनाए हैं – उनके शरीर अलग-अलग हैं, उनके सेक्शुअल अंग अलग-अलग हैं। वे एक-दूसरे के संपर्क में आने पर उत्तेजित होते हैं और एक-दूसरे को संतुष्ट करते हैं। और ऐसा करने में नेचर (या भगवान अगर आप आस्तिक हैं तो) का सबसे बड़ा मकसद सृष्टि को कायम रखना है।

लेकिन मेरे भाई, अगर स्त्री-पुरुष में सेक्स ही नैचरल है और जो यह नहीं करता, वह अननैचरल और मानसिक तौर पर बीमार है तो फिर ये सारे ब्रह्मचारी क्या हैं ? वे लोग जो सेक्स से ही दूर रहते हैं (या दूर रहने का ढोंग करते हैं), उन्हें तो हमारा समाज पूजता है, उनकी चरणसेवा करता है, उनके गुणगान करता है। तब किसी को याद नहीं आता कि ये लोग प्रकृति के नियमों के खिलाफ काम कर रहे हैं। यह कैसा न्याय है कि ब्रह्मचारियों के अननैचरल बिहैवियर की हम पूजा करते हैं और होमोसेक्शुल्स के अप्राकृतिक व्यवहार की निंदा।

चलिए, उनको छोड़िए, अपनी बताइए। अगर आप शादीशुदा हैं तो क्या आप नेचर के नियमों का पालन कर रहे हैं? आखिर किन कुत्ते-बिल्लियों में शादी होती है? किन मछलियों और मेढकों में एक ही पति या पत्नी से बंधे रहने की अनिवार्यता है? नहीं है। तो इसका मतलब यही हुआ कि शादी करके हम नेचर के नियम को तोड़ रहे हैं। लेकिन क्या हम उसे गलत मानते हैं? क्या शादी करने वाले को नीची नज़रों से देखते हैं?

मैं नहीं कह रहा कि शादी गलत है। समाज और परिवार के विकास में विवाह की ज़रूरत है और शायद आगे भी रहेगी। लेकिन उससे यह साबित नहीं हो जाता कि यह नैचरल है। ठीक वैसे ही जैसे कि हमारा कपड़े पहनना नैचरल नहीं है, गुफाओं की जगह एयरकंडिशंड घरों में रहना नैचरल नहीं है, पैदल चलने के बजाय कार आ बस में चलना नैचरल नहीं है। यानी हम ऐसे बहुत से काम करते हैं जो नैचरल नहीं है। अपनी इच्छा और सुविधा के लिए हमने नेचर के नियमों को तोड़ा है, उसके उलटे जाकर काम किया है और आगे भी करेंगे।

कहने का मतलब यह कि अगर कोई नेचर के खिलाफ काम कर रहा है तो हम उसे गलत नहीं कह सकते। जैसे कोई ब्रह्मचारी सेक्स से दूर रहना चाहता तो मैं कौन होता हूं जो उसे कहूं कि नहीं भाई, तुझे ऐसा नहीं करना चाहिए। वैसे ही अगर कोई पुरुष किसी पुरुष के साथ प्यार या सहवास कर रहा है, तब भी मेरा कोई हक नहीं बनता कि मैं उसे रोकूं कि तू गलत कर रहा है। न मेरा न आपका।

होमोसेक्शुऐलिटी पर एक आरोप यह भी है कि यह प्रवृत्ति भारतीय रुझानों के खिलाफ है और पश्चिम से इंपोर्टिड है। इस शिकायत के दो हिस्से हैं। पहले भारतीय परंपरा की बात करें तो यह कहना बहुत मुश्किल है कि भारत में यह कबसे है और कितनी व्यापक है क्योंकि आम तौर पर लोग अपना यह रुझान उजागर नहीं करते। लेकिन भारतीय यौन दर्शन की दो महत्वपूर्ण विरासतों – कामसूत्र और खजुराहो की मूर्तियां इस बात की गवाह हैं कि समलैंगिकता हमारे देश के लिए कोई अनूठी अवधारणा नहीं है। ऊपर की तस्वीरें देखें।

अगर तर्क के लिए मान भी लें कि होमोसेक्शुऐलिटी विदेशी प्रवृत्ति है तो पहले अपने चारों तरफ नज़रें घुमाकर देख लें कि हमने अपने जीवन में क्या नहीं अपनाया जो विदेशी है। और वैसे भी जब हमारा कोई दर्शन विदेश जा सकता है जैसे बौद्ध धर्म तो कोई विदेशी सोच हमारी धरती पर क्यों नहीं आ सकती ? जिसे मानना हो वह माने, न मानना हो न माने।

गुरुवार, 7 मई 2009

पप्पू कहता है क्या करूं, किस पार्टी को मैं वोट दूं?

(7 मई 2009 को नवभारतटाइम्स.कॉम पर प्रकाशित)

नीरेंद्र नागर

मेरे चुनाव क्षेत्र में आज वोटिंग हो रही है और मैं पसोपेश में पड़ा हूं कि किसको वो
ट दूं। हर पार्टी का अपना उम्मीदवार है जिनमें से किसी को भी मैं करीब से नहीं जानता। न उनका अतीत, न वर्तमान, न भविष्य। बस इतना पता है कि ये सारे के सारे किसी न किसी के पार्टी का टिकट पाने में कामयाब रहे हैं और मुझसे और मेरे इलाके के लोगों से वोट मांग रहे हैं।

जो दुविधा मेरे मन में इन उम्मीदवारों को लेकर है, वह मेरे पड़ोसियों के मन में भी होगी। या हो सकता है, उन्होंने अपना मन बना लिया हो। मैं सोचता हूं, पड़ोस में रहने वाले आचार्या जी किसको वोट देंगे। लगता है, बीजेपी को देंगे क्योंकि बीजेपी के पीएम कैंडिडेट लालकृष्ण आडवाणी ने वादा किया है कि सत्ता में आने पर वह इनकम टैक्स में छूट की सीमा 3 लाख कर देंगे जो फिलहाल 1.5 लाख है। यानी कम से कम 30 हज़ार सालाना या हर महीने 2.5 हज़ार का फायदा। बढ़िया है।

लेकिन नीचे वाले फ्लैट में जो चोपड़ा जी रहते हैं, वे बीजेपी को शायद ही वोट दें। बातचीत से लगता है कि वह कांग्रेस के पक्ष में बटन दबाएंगे। वे पहले भी कांग्रेसी ही थे। उनका मानना है कि सीलिंग की मार से कांग्रेस ने ही बचाया है जबकि बीजेपी के नेता केवल शोर मचाते रहे। चोपड़ा जी की एक दुकान है जो सीलिंग की चपेट में आ गई थी लेकिन दिल्ली की सरकार ने केंद्र सरकार से मिलकर जो कानून में फेरबदल किया, उससे उनकी दुकान बच गई।

हमारे अपार्टमेंट के सामने ही शरीफ साहब का फ्लैट है। जैसा नाम, वैसा ही नेचर। आज तक किसी से ऊंचा नहीं बोले। उनकी मंशा समझना मुश्किल है लेकिन इतना तय है कि वह बीजेपी को वोट नहीं देंगे। या तो कांग्रेस, या फिर बीएसपी। लेकिन चूंकि बीएसपी जीतने की स्थिति में नहीं है सो कांग्रेस को वोट पक्का है।

जिस तरह शरीफ साहब बीजेपी के विरोधी हैं, उसी तरह उनके उलट शर्मा जी बीजेपी के खुल्लमखुल्ला सपोर्टर हैं। 1992 से ही उनके मन में चाह है कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का काम जल्द से जल्द शुरू हो। उनकी उम्र 65 साल हो चुकी है और मरने से पहले अयोध्या में भव्य राम मंदिर देखना चाहते हैं। शर्मा जी का ड्राइवर रामबचन भी हिंदू ही है लेकिन वह समाजवादी पार्टी का सपोर्टर है।

शर्मा जी उसे समझा-समझाकर हार गए कि सारे हिंदुओं का हित बीजेपी ही पूरा कर सकती है लेकिन वह हां-हूं करके भी अंत में चुनाव के वक्त घर चला जाता है और शर्मा जी जानते हैं कि वह वहां मुलायम सिंह के उम्मीदवार को ही वोट देगा, आखिर यादव जो है। कई बार शर्मा जी का मन करता है कि उसे चुनाव के दौरान छुट्टी न दें लेकिन लोकतंत्र में उनकी आस्था उन्हें ऐसा करने से रोक देती है।

इन सबसे अलग सड़क पर आइरन करनेवाले पृथ्वीसिंह का इरादा सबको पता है। उसने अपनी गुमटी पर नीला झंडा भी लगा दिया है। साफ है कि वह दलित जाति का है। शायद उसे लगता है कि बीएसपी को वोट देकर वह मायावती को पीएम बना सकेगा, और मायावती के पीएम बनते ही उसके पास गुमटी के बजाय हमारे जैसा फ्लैट होगा।

ये तो रहीं इनकी पसंद मगर मेरी चॉइस क्या हो ? मैं भी नौकरी करता हूं और इनकम टैक्स की छूट 3 लाख होने से मुझे भी फायदा होगा, मगर क्या मैं उस बीजेपी को वोट दूं जिसके समर्थक विचारों और आचरण की आज़ादी के खिलाफ हैं? जो यह फैसला करेंगे कि मेरी बेटी क्या ड्रेस पहने और क्या नहीं। जो यह तय करेंगे कि किस तरह की फिल्में हम देखें और कौनसी नहीं। जो यह तय करेंगे कि स्कूलों में लड़के-लड़कियों को अलग-अलग पढ़ना चाहिए और उन्हें सेक्स शिक्षा नहीं मिलनी चाहिए। नहीं, मैं ऐसी पार्टी को वोट नहीं दे सकता भले ही वह मुझे हर महीने 2.5 हज़ार का बेनिफिट दिलवा रही हो।

तो फिर बची कांग्रेस। कांग्रेस मुझे वह आज़ादी देगी – विचारों और आचरण की आज़ादी। लेकिन जिस पार्टी का दूसरा नाम ही भ्रष्टाचार हो, उसके उम्मीदवार के पक्ष में वोट देकर मैं अपने लिए और अपने भविष्य के लिए क्या चुनूंगा? वह पार्टी जिसके लिए गलत या अवैध कुछ नहीं है! मैंने अपने फ्लैट में एक एक्स्ट्रा ईंट नहीं जोड़ी क्योंकि मैं कानून को मानता हूं लेकिन चोपड़ा जी और उनके जैसे हज़ारों, शायद लाखों लोगों ने पब्लिक लैंड पर तीन-तीन मंज़िलें खड़ी कर दीं और आज सब माफ है। जिसका नेता ही अवैध निर्माण कर रहा है, उससे मेरे जैसा इंसान क्या उम्मीद कर सकता है! और यह तो हो नहीं सकता कि मैं भी उनके जैसा हो जाऊं। नहीं, मेरा वोट कांग्रेस को नहीं जा सकता।

अब बची समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी। समाजवादी पार्टी का कोई उम्मीदवार मेरी सीट से नहीं है। होता तब भी उसे वोट नहीं देता। मैंने यूपी में अपने गांव में देखी है उनकी दादागीरी। जब मुलायम की सरकार थी तो एसपी के नेता और कार्यकर्ता ही थे सर्वेसर्वा। कोई डील उनकी इजाज़त और हिस्सेदारी के बिना पूरी नहीं होती थी। एक पुल पर काम दो साल तक अटका रहा सिर्फ इसलिए कि उसमें सौदा तय नहीं हो पा रहा था। और यह मैं मान नहीं सकता कि यह सब ऊपरवाले की जानकारी और सहमति के बिना हो रहा है।

यही हाल बीएएसपी का है। मैं दलित नहीं हूं फिर भी चाहता हूं कि उनके विकास और उद्धार के लिए मैक्सिमम काम होना चाहिए। परंतु जिस पार्टी में टिकटों की नीलामी होती हो, वहां करोड़पति उम्मीदवार दलितों का भला करने के लिए चुनाव लड रहे हैं, ऐसा कोई बेवकूफ ही मान सकता है और मैं इतना बेवकूफ हूं नहीं। मेरे ख्याल से तो बीएसपी उम्मीदवार को वोट देना मायावती की उंगली में एक और अंगूठी पहनाना है।

ऐसे में मैं क्या करूं? दो ऑप्शन हैं – पहला कि मैं पप्पू बन जाऊं और साथियों से अपनी उंगली छुपाता फिरूं, और दूसरा, पोलिंग बूथ पर जाऊं और 49 ( O ) के तहत अपनी उंगली में इंक लगवाऊं लेकिन बिना वोट दिए लौट आऊं। तरीका चाहे जो अपनाऊं, चुनाव का नतीजा तो वही होगा जो बाकी वोट डालनेवालों के सामूहिक निर्णय के जोड़-घटाव से निकलेगा। मैं ऐसे किसी कैंडिडेट को नहीं रोक पाऊंगा जो मेरे हिसाब से नाम, पैसा और रुतबा पाने-कमाने के लिए चुनाव में खड़ा है न कि समाज सेवा के लिए।

चलिए, कैंडिडेट्स की छोड़िए, वोटरों पर नज़र दौड़ाएं। कौनसा वोटर है जो देश के लिए वोट कर रहा है? आचार्या जी को अपनी 30 हज़ार की एक्स्ट्रा सेविंग दिख रही है तो चोपड़ा जी को अपनी अवैध दुकान बचाने की खुशी और भविष्य में ऐसे और अवैध मकान-दुकान बनाने की संभावना नज़र आ रही है। शर्मा जी को मंदिर का सपना सच करना है भले ही इस मंदिर और ऐसे ही और मुद्दों के चलते दंगों और आतंकवादी हमलों में सैकड़ों जानें चली जाएं या हज़ारों परिवार बेघर और लाचार हो जाएं जिनमें एक शरीफ साहब की फैमिली भी हो सकती है। शरीफ साहब की भी एकमात्र चिंता अपने और अपने परिवार और रोज़गार की सुरक्षा को लेकर है और वह कांग्रेसी भ्रष्टाचार की तरफ आंखें मूंदने को तैयार हैं। यादव और पृथ्वी अपने सजातीय नेता का साथ दे रहे हैं ताकि उनके राज में उन्हें और उनके भाइयों को ज़्यादा से ज़्यादा सरकारी नौकरियां और सुविधाएं मिलें।

मैं सोचता हूं, अगर वाकई एक आदर्श उम्मीदवार इनके सामने पेश कर दिया जाए तो क्या इनमें से कोई भी उसे वोट देगा? एक आदर्श उम्मीदवार जो देश को एक परिवार की तरह ट्रीट करे। परिवार में हर किसी से और हर किसी को उसकी ज़रूरत के हिसाब से लिया-दिया जाता है। बड़े कमाते हैं और बच्चे खाते हैं। बच्चे झगड़ते हैं तो बड़े बीच-बचाव और सुलह-सफाई करवाते हैं। कोई बीमार पड़ता है तो बाकी उसकी सेवा करते हैं। इसी तरह अगर आचार्या साहब और चोपड़ा साहब से कहा जाए कि आपकी आमदनी का कुछ और हिस्सा हमें टैक्स के रूप में चाहिए क्योंकि देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा अच्छे स्कूलों, अस्पतालों, सड़कों और बिजली-पानी से वंचित है, तो क्या वे इसके लिए तैयार होंगे? अगर शर्मा जी से कहा जाए कि राम तो निर्बल के बल हैं, शबरी के प्रभु है और निर्बलों का साथ व शबरियों का उद्धार ही राम की असली पूजा है तो क्या वे इस पूजा में अपना सहयोग देंगे? क्या यादव और पृथ्वी यह समझ पाएंगे कि पैसेवालों और ताकतवालों की कोई जाति नहीं होती और ये सारे नेता क्लब में शराब पीते हुए और नोटों के लिए बिकते समय सब एक हो जाते हैं।

मुझे नहीं लगता कि ऐसा आदर्श उम्मीदवार कोई आ भी जाए तो हमारे वोटर उसे वोट देंगे। पार्टियां भी जानती हैं कि बच्चे वोटर की तरह हैं और उन्हें टॉफी या आइसक्रीम देकर बहलाया-फुसलाया जा सकता है। आपने पढ़ा या देखा होगा कि नेता गांवों में नोट और शराब बांटते हैं ताकि लोगों का वोट खरीद सकें। एक बार सोचिए, आडवाणी जब 3 लाख तक की इनकम पर ज़ीरो टैक्स की बात करते हैं या माकन जब अवैध मकान और दुकान बचाने का आश्वासन देते हैं तो क्या वे वोट नहीं खरीद रहे होते हैं? गांव के लोग गरीब हैं, उनके लिए 500 रुपये की रकम बहुत बड़ी है, इसलिए वह इतने पर ही अपना वोट बिना सोचे-समझे बेच देता है। शहर के वोटर समृद्ध हैं, इसलिए उनका रेट ज़्यादा है। फर्क बस इतना-सा है।

रविवार, 26 अप्रैल 2009

वरुण गांधी और एक गधे की कहानी

वरुण गांधी में एक नया बाल ठाकरे और नरेंद्र मोदी ढूंढने वाले लोगों को सुप्रीम कोर्ट में उनके द्वारा दिए गए आश्वासन से तकलीफ पहुंची होगी। उन लोगों को भी कष्ट पहुंचा होगा जो दावा कर रहे थे कि वरुण ने कोई भड़काऊ भाषण नहीं दिया और उन्हें झूठमूठ में फंसाया जा रहा है। जिन्हें न मालूम हो , उन्हें बता दें कि वरुण ने 13 अप्रैल को कोर्ट में अपने वकील के मार्फत कहलवाया कि वह एक ऐफिडेविट देने को तैयार हैं कि अगर उन्हें ज़मानत पर छोड़ दिया जाए तो वह भविष्य में वैसे भड़काऊ भाषण नहीं देंगे। ( पढ़ें - ऐसा भाषण दुबारा नहीं देंगे वरुण )

इससे क्या पता चलता है ? यही कि वह मान रहे हैं कि उन्होंने पीलीभीत में भड़काऊ भाषण दिया था। वह मान रहे हैं कि सीडी में आवाज़ उन्हीं की थी। अगर वरुण इलेक्शन कमिशन और मीडिया के सामने सच कह रहे थे कि सीडी में उनकी आवाज़ नहीं है , तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट में भी डटे रहना चाहिए था कि सीडी में उनकी आवाज़ नहीं थी। वह ऐफिडेविट देने की सुप्रीम कोर्ट की सलाह को नहीं मानते और कहते कि यह सब जालसाज़ी है। लेकिन इलेक्शन कमिशन के सामने झूठ बोलना आसान है , सुप्रीम कोर्ट के सामने नहीं। ( भाषण का विडियो देखें ) ।

तो अब जब वरुण ने मान लिया है कि उन्होंने पीलीभीत में भड़काऊ भाषण दिया था मगर भविष्य में ऐसा भाषण नहीं देंगे - इससे वरुण का कौनसा चेहरा सामने आता है ? क्या हम मान लें कि वह कम्यूनल से सेक्यूलर हो गए हैं या यह कि वह सिर्फ जेल से बाहर निकलने को लिए ऐसा कह रहे हैं ? दूसरी संभावना ज़्यादा सही लगती है क्योंकि कोई हफ्ते भर में अपनी विचारधारा नहीं बदल सकता। मगर यदि वह सिर्फ जेल की रोटियों से बचने के लिए ही ऐसा कह रहे हैं तो यह और भी बुरा है। इससे पता चलता है कि सांप्रदायिक भाषणों से होनेवाला फायदा तो वह बटोरना चाहते हैं लेकिन उससे होनेवाले नुकसान के लिए वह तैयार नहीं हैं। अगर वरुण अपने स्टैंड पर डटे रहते तो वह उनकी ईमानदारी दिखाता।

बाल ठाकरे ज़माने से ऐसी बातें कहते आए हैं जो कभी मुसलमानों , कभी तमिलों और कभी हिंदीभाषियों के खिलाफ जाती रही हैं। लेकिन हमने कभी उनको अपने किसी बयान के लिए माफी मांगते या सफाई देते नहीं सुना या पढ़ा। इसका उन्हें फायदा भी हुआ और नुकसान भी क्योंकि जहां वह इस बूते पर संकीर्ण हिंदू और मराठी वोट पर एकाधिकार जमा पाए , वहीं वह अपनी ताकत एक सीमा से आगे नहीं बढ़ा पाए। लेकिन इससे उनकी ईमानदारी झलकती है। वही हाल नरेंद्र मोदी का है। हम जानते हैं और दुनिया जानती है वह हिंदूवादी और मुस्लिमविरोधी हैं और वह इसे छुपाने का कोई खास प्रयास भी नहीं करते।

लेकिन वरुण या आडवाणी ऐसे नहीं हैं। आडवाणी भी रथयात्रा और बाबरी विध्वंस के कारण मिले वोट लपकने को तैयार हैं मगर उससे अगर जेल मिलती हो तो यह झूठ बोलने से नहीं चूकते कि उसमें हमारा कोई रोल नहीं था। अरे भाई , अगर आप किसी सिद्धांत में भरोसा करते हो तो साफ कहो कि हम करते हैं और इसके लिए हम जेल क्या , दुनिया छोड़ने के लिए तैयार हैं। लेकिन ऐसा वे क्यों करेंगे ? दुनिया छोड़ने के लिए पार्टी वर्कर और आम जनता है जिसे भड़काकर और दंगा कराकर वोट की फसल काट ली जाए। वरुण भी इसी कैटिगरी के हैं। वह भी भड़काऊ भाषण देकर पीलीभीत से अपने लिए वोट की फसल काटना चाहते थे लेकिन जब पता चला कि इस कोशिश में जेल की हवा भी खानी पड़ सकती है तो पलट गए। वरुण गांधी के मामले से बचपन में पढ़ी एक गधे की कहानी याद आ गई। उस गधे को कहीं से एक शेर की खाल मिल गई और वह शेर बनकर सबको डराने लगा। लेकिन जब कुछ लोग शेर की खाल में छुपे उस गधे के पीछे लाठियां लेकर भागे तो गधा डर के मारे रेंकते हुए भागा। इसके साथ ही उसकी पोल भी खुल गई।

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सोमवार, 26 जनवरी 2009

करवा चौथ यानी हम दासी, तुम स्वामी...

(17 Oct 2008, 1103 hrs IST को नवभारतटाइम्स.कॉम पर प्रकाशित)

आज करवा चौथ का पर्व है। कई हिंदू शादीशुदा महिलाएं दिन भर बिना कुछ खाए-पीए रहेंगी ताकि अगले सात जन्मों में भी इसी पति का साथ मिले। फिर रात को सज-संवरकर , चांद देखकर और पति की आरती उतारकर अपना व्रत खोलेंगी। कुछ लोगों को यह सब इतना अच्छा लगता होगा कि वाह , पतिप्रेम का कितना आनंददायक पर्व है। लेकिन गहराई से देखें तो यह व्रत भी पति-पत्नी के अधिकारों और कर्तव्यों में सदियों से चले आ रहे फर्क को ही आगे भी जारी रखने का जरिया है। एक तरह से इसमें भी त्याग का वही जज़्बा है जो हम सती प्रथा में देखते हैं कि पति मरे तो पत्नी भी चिता पर साथ जल जाए लेकिन पत्नी मरे तो पति जल्द से जल्द दूसरी शादी कर ले।

पढ़ें : भोली बहू से कहती हैं सास

अव्वल तो यह मानने का कोई तर्क नहीं कि अगर हमें किसी के प्रति अपना प्यार जताना है तो वह भूखे रहकर ही जताया जा सकता है। लेकिन अगर यह मान भी लें कि किसी के लिए (भूखे रहकर) कष्ट सहना प्यार और समर्पण का प्रतीक है तो पत्नी ही यह त्याग क्यों करे , पति यह प्यार और समर्पण क्यों नहीं जताता अपनी पत्नी के प्रति ? क्या कोई भी ऐसा त्यौहार है किसी भी धर्म में जिसमें पति अपनी पत्नी या प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए कुछ भी त्याग करता हो ? मेरी जानकारी में तो नहीं है , किसी को मालूम हो तो बताए।

बहुत आसान है यह कहना कि महिलाएं अपनी इच्छा से यह उपवास रखती हैं लेकिन कभी उनके साथ भूखे रहकर तो देखिए – पता चल जाएगा कि भूख क्या चीज़ होती है। नीचे जिन पाठकों के कॉमेंट छपे हैं, उनमें से एक ने भी नहीं कहा कि वह पत्नी के साथ भूखे रहने को तैयार हैं। मेरी उनसे इल्तिजा है कि कम से कम एक बार तो करके देखिए और जानिए कि आपकी पत्नी आपके लिए खुद को कितना कष्ट देती है। पत्नी गृहस्थी का वह चक्का है जो कभी नहीं रुकता। पति तो सात दिन में एक छुट्टी पा जाता है लेकिन पत्नी को तो सातों दिन नौकरी करनी है। छह दिन के बाद छुट्टी न मिले तो पुरुष बिलबिला उठते हैं, पत्नियां 365 दिन काम करती हैं। उनका दिन सुबह 6 बजे से शुरू होता है और रात 11 बजे खत्म होता है। कामकाजी महिलाओं पर तो यह बोझ और ज्यादा है – घर भी है, दफ्तर भी। लेकिन इतना सब करके भी उन्हें यह सुनना पड़ता है कि पति भी तो उनका ख्याल रखते हैं, साड़ी-गहने देते हैं, मानो यह करके वे कोई एहसान कर रहे हों।

पढ़ें : ऐसे बीता लाजो का करवा चौथ

करवा चौथ पर दूसरी बात जो मुझे खटकती है, वह है आरती की। इस दिन पत्नी पति की आरती उतारती है यह मानकर कि पति ही उसका परमेश्वर है। लेकिन जवाब में पति तो पत्नी की आरती नहीं उतारता। बल्कि कुछ पति परमेश्वर ऐसे भी हैं जो बाकी दिन शराब पीकर या बिना पीए ही लातों और जूतों से पत्नी की पूजा करते हैं। मगर परंपरा है कि पति राक्षस भी हो मगर करवा चौथ के दिन पत्नी सजधज कर उसके लिए भूखी रहकर उसकी पूजा करके अपना व्रत खोलेंगी।

मेरे ख्याल से अगर आज की तारीख में इस पर्व को कायम रखना है तो उसे नया रूप देना होगा। पति-पत्नी दोनों एक-दूसरे के लिए व्रत रखें , दोनों भूखे रहें। संभव हो तो दोनों मिलकर खाना बनाएं और रात में साथ-साथ खाएं। साथ ही एक-दूसरे के प्रति प्यार और विश्वास की शपथ दोहराएं। अगर आरती भी उतारनी हो तो दोनों एक-दूसरे की आरती उतारें या कोई किसी की न उतारे क्योंकि आरती ईश्वर की उतारी जाती है , इंसानों की नहीं और कोई इंसान ईश्वर नहीं हो सकता। अगर इस तरह से यह पर्व मनाया जाए तो यह पति-पत्नी के प्यार और विश्वास का पर्व होगा वरना पारंपरिक रूप में तो यह पत्नी को दासी और पति को स्वामी मानने की भारतीय हिंदू परंपरा को आगे बढ़ाने का त्यौहार है और जो आधुनिक कही जाने वाली महिलाएं इसे पारंपरिक रूप में मना रही हैं , वे जाने-अनजाने उसी दासी और स्वामी के संबंध को बढ़ावा दे रही हैं।


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प्यार किया तो क्या कमाल किया...

आज प्यार का दिन है। न जाने कितने लोग आज अपने प्रिय को अपना दिल चीरकर दिखाएंगे और उम्मीद करेंगे कि उसके दिल में भी उन्हीं की तस्वीर मिले। उन्हें दिली शुभकामनाएं।

आपने भी प्यार किया होगा ? कई-कई बार किया होगा। नहीं किया , तो आपसे ज्यादा बदनसीब इंसान कोई नहीं। जिसने प्यार नहीं किया , वह या तो बहुत ही स्वार्थी किस्म का इंसान होगा , जिसे अपने सिवा किसी के बारे में सोचने की चिंता या फुर्सत नहीं है या फिर उसके पास वे आंखें नहीं होंगी , जो अपने चारों तरफ बिखरी पड़ीं अच्छाइयों की पहचान कर सकें।

इस मंगलाचरण के बाद अब आते हैं असली सवाल पर - जो प्यार करते हैं , वे क्या कोई कमाल करते हैं ? अगर आपको कोई व्यक्ति (खासकर विपरीत सेक्स का) अच्छा लगता है और आप उसके प्रति आसक्ति का भाव रखते और जताते हैं , तो इसमें बड़प्पन की कौनसी बात है ? किसी को कोई खास चीज़ अच्छी लगती है , तो आप यह तो नहीं कहेंगे कि वह कोई बहुत बड़ी भावना रखता है। सीधा-सादा फैक्ट यह है कि उसे उस चीज़ की तलब है। मिल जाए तो वह संतुष्टि का अहसास करेगा। अगर टेस्ट के मुताबिक निकली , तो ज्यादा खुशी होगी। अगर कमी-बेशी रही , तो उतना मज़ा नहीं आएगा।
इंसानी प्यार की तुलना किसी निर्जीव चीज से करना आपको अजीब लग रहा होगा। लेकिन सच मानिए - आसक्ति , ज़रूरत और संतुष्टि के पैमाने पर दोनों बातें एक ही हैं। याद कीजिए अपना कोई भी प्यार का किस्सा। वह आपको क्यों पसंद है ? उसका शारीरिक सौंदर्य , स्वभाव , उसकी कोई और खासियत जैसे आवाज़ या इंटलेक्ट या बोल्डनेस या लंबे समय तक आप दोनों का साथ। ढेरों चीजें हैं जो आपके मन में किसी के प्रति आकर्षण पैदा कर सकती हैं। यह डिपेंड करता है कि आपको क्या पसंद है। मसलन किसी को ऐसा व्यक्ति बिल्कुल ही नहीं भा सकता है , जो बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति का या पुरातनपंथी हो। मगर किसी दूसरे मिजाज़ के इंसान के लिए वही साथी के सर्वश्रेष्ठ गुण हो सकते हैं।

क्या वह भी मुझे चाहता/चाहती है?
अब यहां जाकर एक पेच आता है और चीज़ वाली तुलना छूट जाती है , क्योंकि आप तो किसी चीज़ को पसंद करते हैं , लेकिन वह चीज़ भी आपको पसंद करती है - इसका पता लगाने की कोई तरकीब नहीं है। लेकिन प्रेम के मामले में असली अचीवमेंट तभी महसूस होता है , जब आपको भी कोई चाहनेवाला मिले। प्रेम की असली ताकत यही है कि वह आपको महसूस कराता है कि आप भी कुछ हैं। करोड़ों लोगों की दुनिया में जहां किसी को किसी की परवाह नहीं है , वहां अगर कोई ऐसा व्यक्ति हो जो सिर्फ आपको पसंद करे , आपका खयाल रखे , आपके बारे में सोचे और आपको खुश करने और रखने की जुगत में रहे - दूसरे शब्दों में आपको उसकी जिंदगी का शहंशाह बना दे , तो खुशी कैसे नहीं होगी!
खुशी तो होगी लेकिन कितनी , यह दो-तीन बातों पर डिपेंड करता है। एक यह कि जो आपको चाहता है , क्या वह भी आपकी पहली पसंद है ? दूसरा , जो आपको चाहता है , उसे और कितने लोग चाहते हैं , यानी उसकी मार्केट में क्या डिमांड है ? अगर उसे चाहने वाले कई हैं , फिर भी उसने आपको चाहा , तो आपका ईगो फूलकर कुप्पा हो जाता है। लेकिन जो आपको चाहता है , उसकी खास पूछ नहीं है और आपको भी वह कुछ खास आकर्षित नहीं करता , तो आपको थोड़ा अच्छा तो लगता है , मगर उसके प्रति प्यार नहीं , दया उमड़ती है।

यानी जिस तरह लालू प्रसाद अंडमान-निकोबार के किसी अदने से टापू के सर्वेसर्वा बनकर संतुष्ट नहीं हो सकते , वैसे ही हम भी हर किसी का प्यार पाकर संतुष्ट नहीं हो सकते। हम भी किसी खास दिल का सितारा बनने की चाह रखते हैं। अब यह खास व्यक्ति कौन है , यह वक्त , जरूरत और उपलब्धता पर निर्भर करता है। छुटपन में मुमकिन है आपको पड़ोस में ही ख्वाबों का शहजादा या मलिका नजर आने लगे। लेकिन बाद में स्कूल या कॉलेज में जब आपकी पहुंच का दायरा बढ़ता है तो उसकी जगह कोई और ले सकता है। व्यक्ति बदल जाता है मगर भावना वही रहती है। आपको एक बार फिर उस नए शख्स की हर चीज़ अच्छी लगती है। उसका गम आपका गम है , उसकी खुशी आपकी खुशी है। और इसीलिए उसके होठों की मुस्कान के लिए आप बाजार में नया- नया गिफ्ट ढूंढते रहते हैं। उसको एसएमएस करते हैं , उसको बताते हैं कि आप उसे कितना प्यार करते हैं।

प्यार है या इन्वेस्टमेंट?
आप इसे प्यार कहेंगे , मगर माफ कीजिए , यह सब तो एक तरह का इन्वेस्टमेंट है , ताकि वह व्यक्ति भी आपके प्रेम से इम्प्रेस्ट होकर आपको प्रेम करे और आपको महसूस कराए कि आप भी कुछ हैं। दो व्यक्तियों में इस तरह लेनदेन चलता रहे तो आप कह सकते हैं कि दोनों प्यार करते हैं। लेकिन असल में दोनों एक-दूसरे की जरूरत और ख्वाहिश को पूरा कर रहे हैं। दोनों को महसूस हो रहा है कि मैंने कुछ अचीव किया।
लेकिन ये दोनों कब तक प्यार करते रहेंगे ? जब तक अचीव करने के लिए कोई और उपलब्ध नहीं है। आप दसवीं में 90 परसेंट ले आए , आपको अच्छा लगा , मगर क्या आप उससे संतुष्ट हो गए ? कल आप ग्रैजुएशन करेंगे , एमबीए करेंगे। कहने का अर्थ यह कि अगर जिंदगी में हासिल करने के लिए और भी मंजिलें हैं और आपको लगता है कि आप उन्हें पा सकते हैं , तो क्या आप कोशिश नहीं करेंगे?

चलिए , पहेली छोड़कर सीधे मतलब पर आते हैं। एक व्यक्ति से आज प्रेम हुआ , अच्छा लगा , जाना-समझा। लेकिन कल कोई और मिला , उसमें कुछ अतिरिक्त खूबियां हैं , जो इस पहलेवाले में नहीं हैं। उसे भी पाने की इच्छा हुई। तो क्या कोशिश की जाए ? कोशिश करने में क्या हर्ज है ? ना में जवाब मिला तो मौजूदा तो है। बल्कि क्या मौजूदा व्यक्ति से प्यार करते हुए एक और से नहीं किया जा सकता ? सैद्धांतिक रूप से तो किया जा सकता है , मगर प्रैक्टिकल लेवल पर दिक्कतें आती हैं , क्योंकि जैसे ही आपके प्रिय ने किसी और को चाहा और आपको बताया या पता चला , वैसे ही आपका वह भ्रम टूट जाता है कि इस शख्स के लिए मैं एक्सक्लूसिव हूं। इसी भ्रम या भरोसे के बल पर ही तो आप प्रेम के झूले में झूल रहे थे। इसके बाद शुरू होता है यातना का दौर। महान प्रेम की भावना की जगह ले लेते हैं डर , जलन , खुद पर दया और बदला जैसे नेगेटिव इमोशंस। ऐसी ही दिमागी हालत में कई बार लोग किसी की जान ले लेते हैं या जान दे देते हैं।

जान देने वाले वे होते हैं , जिन्हें लगता है कि अब उनकी किसी को जरूरत नहीं रही , इसलिए जीने से क्या फायदा। दूसरी तरफ जान लेने वाले वे होते हैं , जो अपनी जरूरत पूरी करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। दोनों ही हालात में मामला जरूरत का है , जो पूरी हो तो आदमी खुश रहेगा , वरना मायूस।

अब सवाल सिर्फ यह बचता है कि क्या बिना जरूरत का प्यार मुमकिन है ? एक ऐसा प्यार , जिसमें आप किसी को नि:स्वार्थ भाव से चाहें , उस पर नेमतें लुटाते रहें और बदले में कुछ भी न चाहें। अगर वह किसी और से प्यार करे , तो भी ईर्ष्या न करें। अगर आप ऐसा प्यार कर सकते हैं , तो आप और आपका प्यार महान है। वरना वह अपनी साइकलॉजिकल जरूरतें पूरी करने का सामान है। और जैसा कि हमने पहले ही कहा - ऐसे प्यार में क्या कमाल है ?

इस मामले में आपकी क्या राय है ? क्या आपको भी लगता है कि प्यार लेनदेन का ही एक मामला है ? अपनी राय देने के लिए यहां क्लिक करें

(यह लेख 13 फरवरी को नवभारतटाइम्स.कॉम पर प्रकाशित हुआ था।)

एक देशद्रोही ने कैसे मनाया 15 अगस्त

कितना अच्छा दिन है आज। हम अंग्रेज़ों की गुलामी से मुक्ति के साठ साल का जश्न मना रहे हैं। लाल किले से लेकर स्कूल-कॉलेजों में और मुहल्लों से लेकर अपार्टमेंटों तक में तिरंगा फहराया जा रहा है , बच्चों में मिठाइयां बांटी जा रही हैं। मेरे अपार्टमेंट में भी देशभक्ति से भरे गाने बज रहे हैं और मैंने उस शोर से बचने के लिए अपने फ्लैट के सारे दरवाज़े बंद कर दिए हैं। मैं नीचे झंडा फहराने के कार्यक्रम में भी नहीं जा रहा जहां अपार्टमेंट के सारे लोग प्रेज़िडेंट साहब और लोकल नेताजी का भाषण सुनने के लिए जमा हो रहे हैं। मैं इस छुट्टी का आनंद लेते हुए घर में बैठा बेटी के साथ टॉम ऐंड जेरी देख रहा हूं।

आप मुझे देशद्रोही कह सकते हैं। कह सकते हैं कि मुझे देश से प्यार नहीं है। मुझपर जूते-चप्पल फेंक सकते हैं। कोई ज़्यादा ही देशभक्त मुझपर पाकिस्तानी होने का आरोप भी लगा सकता है।

मैं मानता हूं कि मेरा यह काम शर्मनाक है , लेकिन मैं क्या करूं ? मैं जानता हूं कि जब मैं नीचे जाऊंगा और लोगों को बड़ी-बड़ी देशभक्तिपूर्ण बातें बोलते हुए देखूंगा तो मुझसे रहा नहीं जाएगा। वहां हमारे लोकल एमएलए होंगे जिनके भ्रष्टाचार के किस्से उनकी विशाल कोठी और बाहर लगीं चार-पांच कारें खोलती हैं , वह हमारे बच्चों को गांधीजी के त्याग और बलिदान की बात बताएंगे। वहां हमारे सेक्रेटरी साहब होंगे जिन्होंने मकान बनते समय लाखों का घपला किया और आज तक जबरदस्ती सेक्रेटरी बने हुए हैं , वह देश के लिए कुर्बानी देनेवाले शहीदों की याद में आंसू बहाएंगे। वहां अपार्टमेंट के वे तमाम सदस्य होंगे जिन्होंने नियमों को ताक पर रखकर एक्स्ट्रा कमरे बनवा लिए हैं , और कॉमन जगह दखल कर ली है , ऐसे भी कई होंगे जिन्होंने बिजली के मीटर रुकवा दिए हैं। ये सारे लोग वहां तालियां बजाएंगे कि आज हम आज़ाद हैं।

क्या करूं अगर मुझे ऐसे लोगों को देशभक्ति की बात करते देख गुस्सा आ जाता है। इसलिए मैंने फैसला कर लिया है कि मैं वहां जाऊं ही नहीं। हालांकि मैं जानता हूं कि मैं उनसे बच नहीं पाऊंगा। ये सारे लोग आज आज़ादी का जश्न मनाने के बाद कल शहर की सड़कों पर निकलेंगे और हर गली , हर चौराहे , हर दफ्तर , हर रेस्तरां में होंगे। मैं उनसे बचकर कहां जाऊंगा

कल 16 अगस्त को जब मैं ऑफिस के लिए निकलूंगा और देखूंगा कि टंकी में तेल नहीं है तो मेरी पहली चिंता यही होगी कि तेल कहां से भराऊं , क्योंकि ज़्यादातर पेट्रोल पंपों में मिलावटी तेल मिलता है (पेट्रोल पंप का वह मालिक भी आज आज़ादी का जश्न मना रहा होगा , अगर वह खुद नेता होगा तो शायद भाषण भी दे रहा होगा)। खैर , अपने एक विश्वसनीय पेट्रोल पंप तक मेरी गाड़ी चल ही जाएगी , इस भरोसे के साथ मैं आगे बढ़ूंगा और चौराहे की लाल बत्ती पर रुकूंगा। रुकते ही सुनूंगा मेरे पीछे वाली गाड़ी का हॉर्न, जिसका ड्राइवर इसलिए मुझपर बिगड़ रहा होगा कि मैं लाल बत्ती पर क्यों रुक रहा हूं। मेरे आसपास की सारी गाड़ियां , रिक्शे , बस सब लाल बत्ती को अनदेखा करते हुए आगे बढ़ जाएंगे , क्योंकि चौराहे पर कोई पुलिसवाला नहीं है। मैं एक देशद्रोही नागरिक जो आज आज़ादी के समारोह में नहीं जा रहा , कल उस चौराहे पर भी अकेला पड़ जाऊंगा , जबकि सारे देशभक्त अपनी मंज़िल की ओर बढ़ जाएंगे।

अगले चौराहे पर पुलिसवाला मौजूद होगा , इसलिए कुछ गाड़ियां लाल बत्ती पर रुकेंगी। लेकिन बसवाला नहीं। उसे पुलिसवाले का डर नहीं , क्योंकि या तो वह खुद उसी पुलिसवाले को हफ्ता देता है , या फिर बस का मालिक खुद पुलिसवाला है , या कोई नेता है। नेताओं , पुलिसवालों और पैसेवालों के लिए इस आज़ाद देश में कानून न मानने की आज़ादी है। मैं देखूंगा कि मेरे बराबर में ही एक देशभक्त पुलिसवाला बिना हेल्मेट लगाए बाइक पर सवार है , लेकिन मैं उसे टोकने का खतरा नहीं मोल ले सकता , क्योंकि वह किसी भी बहाने मुझे रोक सकता है , मेरी पिटाई कर सकता है , मुझे गिरफ्तार कर सकता है। आप मुझे बचाने के लिए भी नहीं आएंगे क्योंकि मैं ठहरा देशद्रोही जो आज आज़ादी का जश्न मनाने के बजाय कार्टून चैनल देख रहा है।

आगे चलते हुए मैं उन इलाकों से गुज़रूंगा जहां लोगों ने सड़कों पर घर बना दिए हैं , लेकिन उन घरों को तोड़ने की हिम्मत किसी को नहीं है , क्योंकि वे वोट देते हैं। वोट बेचकर वे सड़क को घेर लेने की आज़ादी खरीदते हैं , और वोट खरीदकर ये एमएलए-एमपी विधानसभा और संसद में पहुंचते हैं जहां एक तरफ उन्हें कानून बनाने का कानूनी अधिकार मिल जाता है , दूसरी तरफ कानून तोड़ने का गैरकानूनी अधिकार भी। कोई उनका बाल भी बांका नहीं कर सकता। इसलिए वे अपने वोटरों से कहते हैं , रूल्स आर फॉर फूल्स। मैं भी कानून तोड़ता हूं , तुम भी तोड़ो। मस्त रहो , बस मुझे वोट देते रहो , मैं तुम्हें बचाता रहूंगा।

इसको कहते हैं लोकतंत्र। लोग अपने वोट की ताकत से नाजायज़ अधिकार खरीदते हैं , अपनी आज़ादी खरीदते हैं - कानून तोड़ने की आज़ादी। यह तो मेरे जैसा देशद्रोही ही है जो लोकतंत्र का महत्व नहीं समझ रहा , जिसने अपने फ्लैट में एक इंच भी इधर-उधर नहीं किया , और उसी तंग दायरे में सिमटा रहा , जबकि देशभक्तों ने कमरे , मंजिलें सब बना दीं सिर्फ इस लोकतंत्र के बल पर। आज उसी लोकतांत्रिक देश की आज़ादी की 60वीं सालगिरह पर लोक और सत्ता के इस गठजोड़ को और मज़बूती देने के लिए जगह-जगह ऐसे ही कानूनतोड़क लोग अपने कानूनतोड़क नेता को बुला रहे है।

जनता के ये सेवक आज अपने-अपने इलाकों में तिरंगा फहराएंगे। एक एमएलए-एमपी और बीसियों जगह से आमंत्रण। लेकिन देशसेवा का व्रत लिया है तो जाना ही होगा। आखिरकार जब भाषण देते-देते थक जाएंगे तो रात को किसी बड़े व्यापारी-इंडस्ट्रियलिस्ट के सौजन्य से सुरा-सुंदरी का सहारा लेकर अपनी थकान मिटाएंगे। यह तो मेरे जैसे देशद्रोही ही होंगे जो अपने फ्लैट में दुबके बैठे है और जो रात को दाल-रोटी-सब्जी खाकर सो जाएंगे।

नीचे देशभक्ति के गाने बंद हो गए हैं , भाषण शुरू हो चुके हैं। जय हिंद के नारे लग रहे हैं। मेरा मन भी करता है कि यहीं से सही , मैं भी इस नारे में साथ दूं। दरवाज़ा खोलकर बालकनी में जाता हूं। नीचे खड़े लोगों के चेहरे देखता हूं। चौंक जाता हूं , अरे , यह मैं क्या सुन रहा हूं , ऊपर से हर कोई जय हिंद बोल रहा है , लेकिन मुझे उनके दिल से निकलती यही आवाज़ सुनाई दे रही है - मेरी मर्ज़ी। मैं लाइन तोड़ आगे बढ़ जाऊं , मेरी मर्जी। मैं रिश्वत दे जमीन हथियाऊं , मेरी मर्ज़ी। मैं हर कानून को लात दिखाऊं , मेरी मर्ज़ी...

मैं बालकनी का दरवाज़ा बंद कर वापस कमरे में आ गया हूं। ड्रॉइंग रूम में बेटी ने टीवी के ऊपर प्लास्टिक का छोटा-सा झंडा लगा रखा है। मैं उसके सामने खड़ा हो जाता हूं। झंडे को चूमता हूं , और बोलने की कोशिश करता हूं - जय हिंद। लेकिन आवाज़ भर्रा जाती है। खुद को बहुत ही अकेला पाता हूं। सोचता हूं , क्या और भी लोग होंगे मेरी तरह जो आज अकेले में आज़ादी का यह त्यौहार मना रहे होंगे। वे लोग जो इस भीड़ का हिस्सा बनने से खुद को बचाये रख पाए होंगे ? वे लोग जो अपने फायदे के लिए इस देश के कानून को रौंदने में विश्वास नहीं करते ? वे लोग जो रिश्वत या ताकत के बल पर दूसरों का हक नहीं छीनते ? क्या आप हैं ऐसे इंसान ? या बनना चाहते हैं ऐसा नागरिक ? अगर हां तो मेरी आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाने के लिए यहां क्लिक कीजिए। मैं जानना चाहता हूं , क्या इस देश में अभी भी कोई उम्मीद बची है।
यह लेख 15 अगस्त 2007 को नवभारतटाइम्स.कॉम में प्रकाशित हुआ था।
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सोमवार, 25 जून 2007

हुसेन के चित्रों में ही अश्लीलता क्यों दिखती है?

मकबूल फिदा हुसेन के चित्रों पर इन दिनों फिर हंगामा है। हरिद्वार की एक अदालत में उनकी प्रॉपर्टी जब्त करने के आदेश दे दिए हैं क्योंकि वह बार-बार बुलाए जाने के बावजूद अदालत में हाजिर नहीं हो रहे थे जहां हिंदू देवी-देवताओं की अश्लील तस्वीरें बनाने के आरोप में उन पर मुकदमा चल रहा है। ऐसे ही न जाने कितने मुकदमे हुसेन के खिलाफ देश भर में चल रहे हैं।

हम यहां मुकदमों की चर्चा न कर उन तस्वीरों की चर्चा करेंगे जो कुछ लोगों को अश्लील लगती हैं। अब सवाल यह है कि जब हुसेन किसी देवी की निर्वस्त्र तस्वीर बनाते हैं तभी वह क्यों लोगों को आपत्तिजनक लगती है ? जब कोई हिंदू दुर्गा की ऐसी ही तस्वीर बनाता है और वह बंगाल की प्रतिष्ठित पत्रिका देश के कवर पर छपती है तो क्यों कोई उस हिंदू चित्रकार के खिलाफ केस नहीं करता ?

यदि नग्नता ही अश्लीलता है तो सारे भारत में स्थित काली के सारे मंदिरों में क्यों नहीं ताले लगा दिए जाते ? जिन-जिन घरों में काली की तस्वीरें हैं, उन परिवारों को बहिष्कृत क्यों नहीं किया जाता ? बल्कि उस चित्रकार, मूर्तिकार या दार्शनिक कवि को खोज कर उसकी लानत-मलामत क्यों नहीं की जाती जिसने काली का यह रूप रंगों या शब्दों में बनाया ?


काली ही क्यों, शिव को भी क्यों नहीं इस सफाई अभियान में शामिल किया जाए ? काली तो फिर भी एक निर्वस्त्र देवी का मूर्त रूप है, शिवलिंग की कल्पना तो उससे भी दो कदम आगे है। वैज्ञानिक रूप से ईश्वर का यह भौतिकतम प्रतीक लिंग और योनि का ही प्रतिमांकन है। आरंभ में जब जीवन के रह्स्य को ढूंढने की कोशिश हुई तो लिंग की जीवनदायिनी शक्ति को देखते हुए कई आदिम संप्रदायों ने उसे ईश्वर का दर्ज़ा दे दिया और मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करने लगे। यदि अश्लीलता की आंखों से देखा जाए तो ईश्वर का इससे अश्लील चित्रण भला क्या होगा ! लेकिन क्या हम उसे अश्लील मानते हैं ? काली ओर शिव के देवालय ही क्यों, देश के अनगिनत दूसरे मंदिरों में संभोगरत देवी-देवताओं की मूर्तियां लगी हुई हैं (देखने के लिए आप गूगल सर्च विंडों में Erotic sculptures temples टाइप कर इमेजेज़ को क्लिक कीजिए या यहां क्लिक कीजिए)। तो क्या उन सबको हथोड़ा मारकर नष्ट कर दिया जाए ?
पुराणों में शिव सहित हिंदू देवी-देवताओं पर जाने क्या-क्या लिखा गया है, लेकिन आज तक किसी ने उस पुराणों को जलाने का आह्वान नहीं किया। बिहारी और विद्यापति ने कृष्ण-राधा प्रसंगों का ऐसा श्रृंगारिक वर्णन किया है जिसे आसानी से अश्लील कहा जा सकता है लेकिन उनके साहित्य पर प्रतिबंध की आवाज़ कभी नहीं उठी। फिर हुसेन के चित्रों पर ही शोर क्यों मच रहा है ? सिर्फ इसलिए कि वह मुसलमान हैं वरना कई हिंदू चित्रकार ऐसे ही चित्र बना रहे हैं और मैगज़ीनों के कवर पर छप रहे हैं, लेकिन उनपर कोई बवाल नहीं मचता।
टिप्पणी के आखिर में मैं केवल एक बात पूछूंगा - मां काली को देखकर किसे लग सकता है कि वह एक अश्लील मूर्ति है ? किसी भक्त को तो कदापि नहीं लगेगी। शिवलिंग को देखकर किसे रतिक्रिया की याद आती है ? किसी भक्त को तो नहीं आएगी। यदि मन में धार्मिक भाव हैं तो कभी भी निर्वस्त्रता अश्लीलता का भाव दे सकती। और यदि मन में अश्लीलता है तो पूरी तरह ढका हुआ शरीर भी किसी को उत्तेजित कर सकता है।


हुसेन के चित्रों को देखकर मुझे कभी भी नहीं लगा कि वे अश्लील हैं क्योंकि कभी उन्हें देख्कर कामुक भाव नहीं जागा। हिंदू मंदिरों में शिव-पार्वती की मिथुन मूर्ति बनानेवाले कलाकार ने जिस कल्पना, आस्था और श्रम के साथ वह प्रतिमा गढ़ी होगी और जिसे देख मैं चमत्कृत होता हूं, हुसेन की सरस्वती के देखकर भी मुझे वैसा ही लगता है। कुछ लोगों को उन चित्रों में अश्लीलता इसलिए दिख रही है, कि वे चित्र को अकेलेपन में नहीं, कलाकार के नाम से जोड़कर देख रहे हैं...


(यह लेख नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है जहां कई पाठकों ने उस पर अपनी टिप्पणियां की हैं।
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