होमोसेक्शुऐलिटी को गुनाह नहीं बताने वाले अदालती फैसले से मुझे बहुत खुशी हुई हालांकि मैं खुद होमोसेक्शुअल नहीं हूं।
जब क्लास 8 में पढ़ता था यानी 1973 के आसपास तब यह शब्द अखबारों में पढ़ा था। समझ तो गया था, फिर भी अपने मॉडर्न पिता से पूछ लिया था, यह होमोसेक्शुअल क्या होता है? वह जवाब नहीं दे पाए। टालमटोल वाले अंदाज़ में कहा, एक तरह की मानसिक बीमारी है। मैंने और सवाल पूछकर उनको परेशानी में नहीं डाला लेकिन यह जानकर मायूसी हुई कि मेरे पिता उतने मॉडर्न और खुले विचारों वाले नहीं हैं जितना मैं समझता था।
वह करीब 35 साल पहले की बात थी। लेकिन आज भी लाखों-करोड़ों लोग ऐसे हैं जो इसे एक मानसिक बीमारी समझते हैं। इसलिए समझते हैं कि उन्हें यह समझ में ही नहीं आता कि एक ही सेक्स के दो लोग कैसे एक-दूसरे के प्रति अट्रैक्ट हो सकते हैं। वे खुद ज़िंदगी भर दूसरे सेक्स के प्रति आकर्षण महसूस करते रहे हैं और यह बात उनके गले नहीं उतरती कि कैसे एक लड़की दूसरी लड़की से प्यार कर सकती है या कोई लड़का दूसरे लड़के को पसंद कर सकता है। मेरे लिए यह समझना बिल्कुल ही आसान है क्योंकि मुझे बैगन नहीं पसंद है लेकिन बहुत सारे लोगों को बैगन पसंद है और मुझे नहीं लगता कि वे सारे लोग जो बैगन खाते हैं, मानसिक तौर पर बीमार हैं। यह विशुद्ध मर्जी का मामला है, मर्ज़ का नहीं।
होमोसेक्शुऐलिटी के खिलाफ जो सबसे बड़ा आरोप है, वह यह कि यह अननैचरल है। ऊपरी तौर पर यह आरोप सही लगता है क्योंकि मनुष्य ही नहीं, बाकी जीव-जंतुओं में भी सृष्टि ने नर और मादा अलग-अलग बनाए हैं – उनके शरीर अलग-अलग हैं, उनके सेक्शुअल अंग अलग-अलग हैं। वे एक-दूसरे के संपर्क में आने पर उत्तेजित होते हैं और एक-दूसरे को संतुष्ट करते हैं। और ऐसा करने में नेचर (या भगवान अगर आप आस्तिक हैं तो) का सबसे बड़ा मकसद सृष्टि को कायम रखना है।
लेकिन मेरे भाई, अगर स्त्री-पुरुष में सेक्स ही नैचरल है और जो यह नहीं करता, वह अननैचरल और मानसिक तौर पर बीमार है तो फिर ये सारे ब्रह्मचारी क्या हैं ? वे लोग जो सेक्स से ही दूर रहते हैं (या दूर रहने का ढोंग करते हैं), उन्हें तो हमारा समाज पूजता है, उनकी चरणसेवा करता है, उनके गुणगान करता है। तब किसी को याद नहीं आता कि ये लोग प्रकृति के नियमों के खिलाफ काम कर रहे हैं। यह कैसा न्याय है कि ब्रह्मचारियों के अननैचरल बिहैवियर की हम पूजा करते हैं और होमोसेक्शुल्स के अप्राकृतिक व्यवहार की निंदा।
चलिए, उनको छोड़िए, अपनी बताइए। अगर आप शादीशुदा हैं तो क्या आप नेचर के नियमों का पालन कर रहे हैं? आखिर किन कुत्ते-बिल्लियों में शादी होती है? किन मछलियों और मेढकों में एक ही पति या पत्नी से बंधे रहने की अनिवार्यता है? नहीं है। तो इसका मतलब यही हुआ कि शादी करके हम नेचर के नियम को तोड़ रहे हैं। लेकिन क्या हम उसे गलत मानते हैं? क्या शादी करने वाले को नीची नज़रों से देखते हैं?
मैं नहीं कह रहा कि शादी गलत है। समाज और परिवार के विकास में विवाह की ज़रूरत है और शायद आगे भी रहेगी। लेकिन उससे यह साबित नहीं हो जाता कि यह नैचरल है। ठीक वैसे ही जैसे कि हमारा कपड़े पहनना नैचरल नहीं है, गुफाओं की जगह एयरकंडिशंड घरों में रहना नैचरल नहीं है, पैदल चलने के बजाय कार आ बस में चलना नैचरल नहीं है। यानी हम ऐसे बहुत से काम करते हैं जो नैचरल नहीं है। अपनी इच्छा और सुविधा के लिए हमने नेचर के नियमों को तोड़ा है, उसके उलटे जाकर काम किया है और आगे भी करेंगे।
कहने का मतलब यह कि अगर कोई नेचर के खिलाफ काम कर रहा है तो हम उसे गलत नहीं कह सकते। जैसे कोई ब्रह्मचारी सेक्स से दूर रहना चाहता तो मैं कौन होता हूं जो उसे कहूं कि नहीं भाई, तुझे ऐसा नहीं करना चाहिए। वैसे ही अगर कोई पुरुष किसी पुरुष के साथ प्यार या सहवास कर रहा है, तब भी मेरा कोई हक नहीं बनता कि मैं उसे रोकूं कि तू गलत कर रहा है। न मेरा न आपका।
होमोसेक्शुऐलिटी पर एक आरोप यह भी है कि यह प्रवृत्ति भारतीय रुझानों के खिलाफ है और पश्चिम से इंपोर्टिड है। इस शिकायत के दो हिस्से हैं। पहले भारतीय परंपरा की बात करें तो यह कहना बहुत मुश्किल है कि भारत में यह कबसे है और कितनी व्यापक है क्योंकि आम तौर पर लोग अपना यह रुझान उजागर नहीं करते। लेकिन भारतीय यौन दर्शन की दो महत्वपूर्ण विरासतों – कामसूत्र और खजुराहो की मूर्तियां इस बात की गवाह हैं कि समलैंगिकता हमारे देश के लिए कोई अनूठी अवधारणा नहीं है। ऊपर की तस्वीरें देखें।
अगर तर्क के लिए मान भी लें कि होमोसेक्शुऐलिटी विदेशी प्रवृत्ति है तो पहले अपने चारों तरफ नज़रें घुमाकर देख लें कि हमने अपने जीवन में क्या नहीं अपनाया जो विदेशी है। और वैसे भी जब हमारा कोई दर्शन विदेश जा सकता है जैसे बौद्ध धर्म तो कोई विदेशी सोच हमारी धरती पर क्यों नहीं आ सकती ? जिसे मानना हो वह माने, न मानना हो न माने।