गुरुवार, 7 मई 2009

पप्पू कहता है क्या करूं, किस पार्टी को मैं वोट दूं?

(7 मई 2009 को नवभारतटाइम्स.कॉम पर प्रकाशित)

नीरेंद्र नागर

मेरे चुनाव क्षेत्र में आज वोटिंग हो रही है और मैं पसोपेश में पड़ा हूं कि किसको वो
ट दूं। हर पार्टी का अपना उम्मीदवार है जिनमें से किसी को भी मैं करीब से नहीं जानता। न उनका अतीत, न वर्तमान, न भविष्य। बस इतना पता है कि ये सारे के सारे किसी न किसी के पार्टी का टिकट पाने में कामयाब रहे हैं और मुझसे और मेरे इलाके के लोगों से वोट मांग रहे हैं।

जो दुविधा मेरे मन में इन उम्मीदवारों को लेकर है, वह मेरे पड़ोसियों के मन में भी होगी। या हो सकता है, उन्होंने अपना मन बना लिया हो। मैं सोचता हूं, पड़ोस में रहने वाले आचार्या जी किसको वोट देंगे। लगता है, बीजेपी को देंगे क्योंकि बीजेपी के पीएम कैंडिडेट लालकृष्ण आडवाणी ने वादा किया है कि सत्ता में आने पर वह इनकम टैक्स में छूट की सीमा 3 लाख कर देंगे जो फिलहाल 1.5 लाख है। यानी कम से कम 30 हज़ार सालाना या हर महीने 2.5 हज़ार का फायदा। बढ़िया है।

लेकिन नीचे वाले फ्लैट में जो चोपड़ा जी रहते हैं, वे बीजेपी को शायद ही वोट दें। बातचीत से लगता है कि वह कांग्रेस के पक्ष में बटन दबाएंगे। वे पहले भी कांग्रेसी ही थे। उनका मानना है कि सीलिंग की मार से कांग्रेस ने ही बचाया है जबकि बीजेपी के नेता केवल शोर मचाते रहे। चोपड़ा जी की एक दुकान है जो सीलिंग की चपेट में आ गई थी लेकिन दिल्ली की सरकार ने केंद्र सरकार से मिलकर जो कानून में फेरबदल किया, उससे उनकी दुकान बच गई।

हमारे अपार्टमेंट के सामने ही शरीफ साहब का फ्लैट है। जैसा नाम, वैसा ही नेचर। आज तक किसी से ऊंचा नहीं बोले। उनकी मंशा समझना मुश्किल है लेकिन इतना तय है कि वह बीजेपी को वोट नहीं देंगे। या तो कांग्रेस, या फिर बीएसपी। लेकिन चूंकि बीएसपी जीतने की स्थिति में नहीं है सो कांग्रेस को वोट पक्का है।

जिस तरह शरीफ साहब बीजेपी के विरोधी हैं, उसी तरह उनके उलट शर्मा जी बीजेपी के खुल्लमखुल्ला सपोर्टर हैं। 1992 से ही उनके मन में चाह है कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का काम जल्द से जल्द शुरू हो। उनकी उम्र 65 साल हो चुकी है और मरने से पहले अयोध्या में भव्य राम मंदिर देखना चाहते हैं। शर्मा जी का ड्राइवर रामबचन भी हिंदू ही है लेकिन वह समाजवादी पार्टी का सपोर्टर है।

शर्मा जी उसे समझा-समझाकर हार गए कि सारे हिंदुओं का हित बीजेपी ही पूरा कर सकती है लेकिन वह हां-हूं करके भी अंत में चुनाव के वक्त घर चला जाता है और शर्मा जी जानते हैं कि वह वहां मुलायम सिंह के उम्मीदवार को ही वोट देगा, आखिर यादव जो है। कई बार शर्मा जी का मन करता है कि उसे चुनाव के दौरान छुट्टी न दें लेकिन लोकतंत्र में उनकी आस्था उन्हें ऐसा करने से रोक देती है।

इन सबसे अलग सड़क पर आइरन करनेवाले पृथ्वीसिंह का इरादा सबको पता है। उसने अपनी गुमटी पर नीला झंडा भी लगा दिया है। साफ है कि वह दलित जाति का है। शायद उसे लगता है कि बीएसपी को वोट देकर वह मायावती को पीएम बना सकेगा, और मायावती के पीएम बनते ही उसके पास गुमटी के बजाय हमारे जैसा फ्लैट होगा।

ये तो रहीं इनकी पसंद मगर मेरी चॉइस क्या हो ? मैं भी नौकरी करता हूं और इनकम टैक्स की छूट 3 लाख होने से मुझे भी फायदा होगा, मगर क्या मैं उस बीजेपी को वोट दूं जिसके समर्थक विचारों और आचरण की आज़ादी के खिलाफ हैं? जो यह फैसला करेंगे कि मेरी बेटी क्या ड्रेस पहने और क्या नहीं। जो यह तय करेंगे कि किस तरह की फिल्में हम देखें और कौनसी नहीं। जो यह तय करेंगे कि स्कूलों में लड़के-लड़कियों को अलग-अलग पढ़ना चाहिए और उन्हें सेक्स शिक्षा नहीं मिलनी चाहिए। नहीं, मैं ऐसी पार्टी को वोट नहीं दे सकता भले ही वह मुझे हर महीने 2.5 हज़ार का बेनिफिट दिलवा रही हो।

तो फिर बची कांग्रेस। कांग्रेस मुझे वह आज़ादी देगी – विचारों और आचरण की आज़ादी। लेकिन जिस पार्टी का दूसरा नाम ही भ्रष्टाचार हो, उसके उम्मीदवार के पक्ष में वोट देकर मैं अपने लिए और अपने भविष्य के लिए क्या चुनूंगा? वह पार्टी जिसके लिए गलत या अवैध कुछ नहीं है! मैंने अपने फ्लैट में एक एक्स्ट्रा ईंट नहीं जोड़ी क्योंकि मैं कानून को मानता हूं लेकिन चोपड़ा जी और उनके जैसे हज़ारों, शायद लाखों लोगों ने पब्लिक लैंड पर तीन-तीन मंज़िलें खड़ी कर दीं और आज सब माफ है। जिसका नेता ही अवैध निर्माण कर रहा है, उससे मेरे जैसा इंसान क्या उम्मीद कर सकता है! और यह तो हो नहीं सकता कि मैं भी उनके जैसा हो जाऊं। नहीं, मेरा वोट कांग्रेस को नहीं जा सकता।

अब बची समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी। समाजवादी पार्टी का कोई उम्मीदवार मेरी सीट से नहीं है। होता तब भी उसे वोट नहीं देता। मैंने यूपी में अपने गांव में देखी है उनकी दादागीरी। जब मुलायम की सरकार थी तो एसपी के नेता और कार्यकर्ता ही थे सर्वेसर्वा। कोई डील उनकी इजाज़त और हिस्सेदारी के बिना पूरी नहीं होती थी। एक पुल पर काम दो साल तक अटका रहा सिर्फ इसलिए कि उसमें सौदा तय नहीं हो पा रहा था। और यह मैं मान नहीं सकता कि यह सब ऊपरवाले की जानकारी और सहमति के बिना हो रहा है।

यही हाल बीएएसपी का है। मैं दलित नहीं हूं फिर भी चाहता हूं कि उनके विकास और उद्धार के लिए मैक्सिमम काम होना चाहिए। परंतु जिस पार्टी में टिकटों की नीलामी होती हो, वहां करोड़पति उम्मीदवार दलितों का भला करने के लिए चुनाव लड रहे हैं, ऐसा कोई बेवकूफ ही मान सकता है और मैं इतना बेवकूफ हूं नहीं। मेरे ख्याल से तो बीएसपी उम्मीदवार को वोट देना मायावती की उंगली में एक और अंगूठी पहनाना है।

ऐसे में मैं क्या करूं? दो ऑप्शन हैं – पहला कि मैं पप्पू बन जाऊं और साथियों से अपनी उंगली छुपाता फिरूं, और दूसरा, पोलिंग बूथ पर जाऊं और 49 ( O ) के तहत अपनी उंगली में इंक लगवाऊं लेकिन बिना वोट दिए लौट आऊं। तरीका चाहे जो अपनाऊं, चुनाव का नतीजा तो वही होगा जो बाकी वोट डालनेवालों के सामूहिक निर्णय के जोड़-घटाव से निकलेगा। मैं ऐसे किसी कैंडिडेट को नहीं रोक पाऊंगा जो मेरे हिसाब से नाम, पैसा और रुतबा पाने-कमाने के लिए चुनाव में खड़ा है न कि समाज सेवा के लिए।

चलिए, कैंडिडेट्स की छोड़िए, वोटरों पर नज़र दौड़ाएं। कौनसा वोटर है जो देश के लिए वोट कर रहा है? आचार्या जी को अपनी 30 हज़ार की एक्स्ट्रा सेविंग दिख रही है तो चोपड़ा जी को अपनी अवैध दुकान बचाने की खुशी और भविष्य में ऐसे और अवैध मकान-दुकान बनाने की संभावना नज़र आ रही है। शर्मा जी को मंदिर का सपना सच करना है भले ही इस मंदिर और ऐसे ही और मुद्दों के चलते दंगों और आतंकवादी हमलों में सैकड़ों जानें चली जाएं या हज़ारों परिवार बेघर और लाचार हो जाएं जिनमें एक शरीफ साहब की फैमिली भी हो सकती है। शरीफ साहब की भी एकमात्र चिंता अपने और अपने परिवार और रोज़गार की सुरक्षा को लेकर है और वह कांग्रेसी भ्रष्टाचार की तरफ आंखें मूंदने को तैयार हैं। यादव और पृथ्वी अपने सजातीय नेता का साथ दे रहे हैं ताकि उनके राज में उन्हें और उनके भाइयों को ज़्यादा से ज़्यादा सरकारी नौकरियां और सुविधाएं मिलें।

मैं सोचता हूं, अगर वाकई एक आदर्श उम्मीदवार इनके सामने पेश कर दिया जाए तो क्या इनमें से कोई भी उसे वोट देगा? एक आदर्श उम्मीदवार जो देश को एक परिवार की तरह ट्रीट करे। परिवार में हर किसी से और हर किसी को उसकी ज़रूरत के हिसाब से लिया-दिया जाता है। बड़े कमाते हैं और बच्चे खाते हैं। बच्चे झगड़ते हैं तो बड़े बीच-बचाव और सुलह-सफाई करवाते हैं। कोई बीमार पड़ता है तो बाकी उसकी सेवा करते हैं। इसी तरह अगर आचार्या साहब और चोपड़ा साहब से कहा जाए कि आपकी आमदनी का कुछ और हिस्सा हमें टैक्स के रूप में चाहिए क्योंकि देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा अच्छे स्कूलों, अस्पतालों, सड़कों और बिजली-पानी से वंचित है, तो क्या वे इसके लिए तैयार होंगे? अगर शर्मा जी से कहा जाए कि राम तो निर्बल के बल हैं, शबरी के प्रभु है और निर्बलों का साथ व शबरियों का उद्धार ही राम की असली पूजा है तो क्या वे इस पूजा में अपना सहयोग देंगे? क्या यादव और पृथ्वी यह समझ पाएंगे कि पैसेवालों और ताकतवालों की कोई जाति नहीं होती और ये सारे नेता क्लब में शराब पीते हुए और नोटों के लिए बिकते समय सब एक हो जाते हैं।

मुझे नहीं लगता कि ऐसा आदर्श उम्मीदवार कोई आ भी जाए तो हमारे वोटर उसे वोट देंगे। पार्टियां भी जानती हैं कि बच्चे वोटर की तरह हैं और उन्हें टॉफी या आइसक्रीम देकर बहलाया-फुसलाया जा सकता है। आपने पढ़ा या देखा होगा कि नेता गांवों में नोट और शराब बांटते हैं ताकि लोगों का वोट खरीद सकें। एक बार सोचिए, आडवाणी जब 3 लाख तक की इनकम पर ज़ीरो टैक्स की बात करते हैं या माकन जब अवैध मकान और दुकान बचाने का आश्वासन देते हैं तो क्या वे वोट नहीं खरीद रहे होते हैं? गांव के लोग गरीब हैं, उनके लिए 500 रुपये की रकम बहुत बड़ी है, इसलिए वह इतने पर ही अपना वोट बिना सोचे-समझे बेच देता है। शहर के वोटर समृद्ध हैं, इसलिए उनका रेट ज़्यादा है। फर्क बस इतना-सा है।